1984 में इंदिरा गांधी की मृत्यु और राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद, भारत में आम नागरिकों को रोजमर्रा की चीजें खरीदने के लिए भी सरकारी अनुमति लेनी पड़ती थी।
उद्योगपतियों का पलायन: यह आरोप लगाया गया कि नेहरू और इंदिरा गांधी की नीतियों से परेशान होकर उद्योगपति आदित्य बिड़ला ने भारत में कोई नई फैक्ट्री न लगाने की कसम खाई और इसके बाद उन्होंने विदेश में 32 बड़ी फैक्ट्रियां स्थापित कीं, लेकिन भारत में नहीं।
मूलभूत वस्तुओं की कमी: लोगों को दो बोरी सीमेंट या एक किलो चीनी खरीदने के लिए तहसीलदार से परमिट लेना पड़ता था। शादियों जैसे बड़े आयोजनों के लिए एक क्विंटल चीनी पाने के लिए महीनों पहले से ही जुगाड़ और सिफारिशें लगानी पड़ती थीं।
LPG कनेक्शन की समस्या: LPG गैस कनेक्शन के लिए 10 से 15 साल का इंतजार करना पड़ता था। यहाँ तक कि जिन्हें कनेक्शन मिल जाता था, वे भी गैस खत्म होने की चिंता में उसका इस्तेमाल कम करते थे क्योंकि सिलेंडर भरवाने में भी काफी दिक्कतें आती थीं।
वाहनों की कमी: 1978 के दौर में, बजाज स्कूटर जैसे प्रीमियम वाहनों की इतनी कमी थी कि ₹5000 के स्कूटर के लिए ₹5000 का ‘ब्लैक’ यानी प्रीमियम देना पड़ता था, जिससे उसकी कीमत ₹10,000 हो जाती थी।
शहरी योजना पर सवाल: दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) द्वारा 1960 और 70 के दशक में बनाए गए फ्लैट्स की बनावट पर सवाल उठाया गया, जहाँ स्कूटर या कार खड़ी करने की जगह नहीं थी। इस पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी की गई कि शायद योजना बनाते समय यह नहीं सोचा गया था कि दिल्ली के लोग कभी वाहन खरीद पाएंगे।
लाइसेंस राज का प्रभाव: गुरचरण दास की किताब ‘इंडिया अनबाउंड’ का हवाला देते हुए बताया गया कि नेहरू ने सवाल किया था कि भारत में टूथपेस्ट के 10 ब्रांड क्यों होने चाहिए। यह भी बताया गया कि किसी भी कंपनी को ज्यादा उत्पादन करने के लिए सरकार से अनुमति लेनी पड़ती थी। एक उदाहरण दिया गया कि जब तमिलनाडु में फ्लू फैला तो Vicks बनाने वाली कंपनी को अतिरिक्त 5 लाख इन्हेलर बनाने की अनुमति डेढ़ महीने बाद मिली, जब तक फ्लू खत्म हो चुका था।